वह बहुत खूबसूरत तो नहीं थी, लेकिन इतनी बुरी भी नहीं थी। उसकी सहजता और विनम्रता के सब कायल थे। पढ़ने में औसत से थोड़ी बेहतर। सपने, बस इतने कि किसी 'अच्छे' परिवार में शादी हो जाए, परिवार की मर्जी से। बस परिवार की इस 'मर्जी' से ही कहानी शुरू होती है कुसुम की। जब तक पढ़ती रही, शादी के बारे में सोचा नहीं, सोचा इन सब बातों के लिए घर वाले हैं ना।
जब खुद ने सोचना शुरू किया या कहें कि जब उसके सपनों ने आकार लेना शुरू किया, तब तक वह उम्र के उस मोड़ पर आ खड़ी हुईं, जब छोटे भाई-बहन भी प्रतिद्वंद्वी के रूप में तैयार खड़े होने लगे। उसका दोष महज इतना था कि उसने अपनी मर्जी के बजाए परिवार की 'इज्जत' को प्राथमिकता दी। वह 'इज्जत' जो इतनी कच्ची और कमजोर होती है कि उसकी पसंद से शादी करने भर से 'खतम' हो जाती।
परिवार की प्रतिष्ठा बनी रहे इसलिए लड़कों से दोस्ती नहीं की, भाई का कोपभाजन न बन बैठें इसलिए उसके सब दोस्तों को भाई मान लिया। जब कभी घर में भूल से भी कोई सहपाठी आ गया तो मानो उसके परिवार की मान-मर्यादा को बट्टा लग गया। घर में भूचाल आ जाता। वैवाहिक संबंधों की बातों में सक्रियता आ जाती। मगर हर बात जात-पाँत, जमाने की ऊँच-नीच, लोग क्या कहेंगे पर अटक जाती।
घर के लोग होने वाले दूल्हे का गोत्र यह नहीं वह हो, जैसी बातों पर पूरी कट्टरता से अड़े रहते। परिवार की इज्जत के नाम पर यह कट्टरता निभाई जाती। धीरे-धीरे चाहे-अनचाहे उसकी शिक्षा बढ़ती रही। घर में बैठने से तो अच्छा है डिग्रियाँ बटोरों। समाज में वह एक समझदार, सुयोग्य व संस्कारी लड़की के रूप में पहचानी जाती है क्योंकि वह उम्र की परवाह किए बिना परिवार वालों की मर्जी के भरोसे बैठी है।
ये हैं 'ऑनर किलिंग' का वह रूप जो मीडिया या समाज को नहीं देखता। हमने उस ऑनर किलिंग के बारे में सुना है, जो परिवार की प्रतिष्ठा के लिए प्रेमियों को मार डालता है। हमें नहीं दिखाई देते समाज के वे अविवाहित-अविवाहिताएँ जो अपने परिवार की तथाकथित इज्जत का बोझ ढोते हुए कुँवारे 'शहीद' हो रहे हैं। परिवार इन कुँवारों पर गर्व करता है। क्योंकि ये इज्जत को लेकर या बनाकर बैठे हैं।
अपनी झूठी अकड़, प्रतिष्ठा और समाज की जवाबदेही के लिए परिजन न सोचते हैं न सोचना चाहते हैं कि एक मासूम बिना किसी कसूर के इनके घर में शनैः-शनैः खत्म हो रहा/ रही है। 'ऑनर किलिंग' के इस रूप में न प्रेम है, न प्रेमी है, न मौत है न घाट। बस परिवार के नकली ठाट हैं। और पीड़ित वर्ग का एक बोझिल-सा हाट है जहाँ हर रोज विधुर, तलाकशुदा और बाल बच्चेदार 'रिश्तों' की कसैली बोली लगती है।
यहाँ सब जायज है क्योंकि जाति-बिरादरी में किया रिश्ता समाज में इज्जत (?) देता है। जाति के बाहर किसी योग्य और कुँवारे ने भी हाथ बढ़ाया तो इज्जत 'खतम' होने का भय! 'ऑनर किलिंग' के इस स्वरूप में खून-खराबा नहीं है, लेकिन दिल लहूलुहान है। यहाँ कोई मरता नहीं मगर मरे हुए के समान है। उम्र के तीस बरस तक ये वर्ग खामोशी से परिवार के 'सम्मान' को बनाए रखते हुए अपनी पसंद को नजरअंदाज करता रहता है।
फिर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है परिजनों का धैर्य कम होने लगता है। लेकिन 'ऑनर' के नाम पर कायम उनकी 'अकड़' कम नहीं होती। यही वजह हैं कि 'हम कर नहीं पा रहे हैं और तुम्हें हम करने नहीं देंगे' का नारा बुलंद करते हुए परिजन 'ऑनर' क बनाए रखने में सफल होते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह वर्ग नासमझ है। यह किलिंग वर्ग जानता है कि वह शोषित है, प्रताड़ित है। धीरे-धीरे तबाह हो रहा है। लेकिन संस्कारों, आदर्शों और मर्यादा के 'ओवरडोज' के तले इनकी आवाज सतह पर नहीं आ पाती है और परिणामस्वरूप 'इज्जत' बनी रहती है। घर में भी और बाहर भी। जिस उम्र में उसे जीवन के विविध रंगों से परिचित हो जाना चाहिए, उस उम्र में उससे अपेक्षा की जाती है कि वह 'इज्जतदार' बने रहने में गर्व महसूस करे।
वह करता भी है। उम्र के सोलह से लेकर पच्चीसवें पड़ाव-विशेष तक इन अविवाहितों पर भी नूर आता है, उन्हें भी आकर्षक प्रस्ताव मिलते हैं। रिश्ते उनके द्वार पर भी बसंत की तरह दस्तक देते हैं। मगर कहीं जाति अटकती है, कहीं आयु, कहीं रिश्ते, कहीं पैसा तो कहीं 'प्रतिष्ठा' तो कहीं बस ये कि लड़की या लड़का, परिवार वालों के होते हुए खुद कैसे रिश्ता ले आया।
परिवार वालों के अनुसार उस लड़के/लड़की में संस्कार नहीं होंगे, गहराई नहीं होगी, सम्मान भाव नहीं होगा जिसे पहले उन्होंने पसंद नहीं किया। इज्जत के नाम पर खत्म होते इस वर्ग के जीवन को करियर, शिक्षा, महत्वाकांक्षा जैसे शब्द कई विशिष्ट उपलब्धियों के साथ घेरे रहते हैं। यही वजह है कि 'किल' होते हुए भी 'ऑनर' के लिए परिवारों में ये लगातार 'खिलते' रहते हैं और बढ़ते जा रहे हैं।
समाज में आज भी एक बहुत बड़ा वर्ग छद्म प्रतिष्ठा, अड़ियल रवैए और सामंती ठसक के साथ मौजूद है। जब इनके घरों में रह रहे 'ओवरएज बैचलर्स' की इनसे चर्चा की जाए तो गर्व के मारे इनके सीने फूल जाते हैं। चेहरा चमक उठता है, क्योंकि उनके शब्दों में वे 'ऐसे-वैसे' नहीं हैं, खानदानी हैं इसीलिए तो परिवार नहीं ढूँढ पाया तब भी बैठे हैं इज्जत की खातिर।
लेकिन ये नहीं जानते कि इनकी इस कथित शान के तले पल-प्रतिपल 'किसी' का दम घुट रहा है, 'किसी' के सुहाने सपनों की किरचें बिखर रही हैं। 'किसी' के अरमानों की धज्जियाँ उड़ रही हैं। क्या किसी का 'इज्जतदार' बने रहना मासूम सपनों की मौत से बढ़कर है?
ये कैसी ऑनर किलिंग है जिसमें अपनी ही संतानों के नस-नस में खोखले संस्कारों के इतने इंजेक्शन लगा दिए जाते हैं कि खुद वह क्या चाहता है उसे पता ही नहीं चलता? 30 से 45 साल के बीच का यह वर्ग न युवा माना जाता है न बुजुर्ग। 'ऑनर' के नाम पर 'किल' हो रहे अधर में खड़े इस वर्ग के 'कातिल' कहीं आप भी तो नहीं?
Friday, May 7, 2010
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